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खरी-खरी फटकार / अछूतानन्दजी 'हरिहर'

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मैं अछूत हूँ, छूत न मुझमें, फिर क्यों जग ठुकराता है?
छूने में भी पाप मनता, छाया से घबराता है?

मुझे देख नाकें सिकोड़ता, दूर हटा वह जाता है।
 'हरिजन' भी कहता है मुझको, हरि से विलग कराता है॥
फिर जब धर्म बदल जाता है, मुसलमान बन जाता हूँ।
अथवा ईसाई बन करके, हैट लगाकर आता हूँ।

छूत-छात तब मिट जाती है, साहब मैं कहलाता हूँ।
उन्हीं मन्दिरों में जा करके, उन्हें पवित्र बनाता हूँ॥
क्या कारण इस परिवर्तन का, ऐ हिंद बतला दे तू?
क्यों न तजूँ इस अधम धर्म को? इसे ज़रा जतला दे तू?

नहीं-नहीं मैं समझ गया, क्या मेरा तेरा नाता है।
तू है मेरा शत्रु पुराना, अपना बैर चुकाता है॥
उत्तर धु्रव से, तिब्बत होकर, तू भारत में घुस आया।
छीन लिया छल-बल से सब कुछ, बहुत जुल्म मुझ पर ढाया॥

हो गृहहीन फिरा मैं वन-वन फिर जब बस्ती में आया।
कह 'अछूत दूर-दूर हट' जालिम, तूने मुझको ठुकराया॥
कड़े-कड़े कानून बनाये, बस्ती बाहर ठौर दिया।
बदल गया अब सब कुछ भाई! पर तेरा बदला न हिया॥

उसी भाव से अब भी जालिम! तू मुझको कलपाता है।
भाईपन का भाव हिये मेें, तेरे कभी न आता है॥
रस्सी जल न ऐंठन छूटी, तेरा यही तमाशा है।
घर में घृणा, गैर की ठोकर, करता सुख की आशा है॥

समझ-सोचकर चेत, अरे अभिमानी! कर ईश्वर का ध्यान।
मिट जायेगा तू दुनिया से, अरे! समझता नर को श्वान्॥
कभी न तेरा भला होयगा, जो मुझको ठुकरायेगा।
दुर्गति के खंदक में 'हरिहर' तू इक दिन गिर जायेगा॥