भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़त्म करना है मुझे ख़्वाब का क़िस्सा इक दिन / तसनीफ़ हैदर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:35, 9 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तसनीफ़ हैदर }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़त्म करना ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़त्म करना है मुझे ख़्वाब का क़िस्सा इक दिन
बन के ताबीर कहीं तू मुझे मिल जा इक दिन

तुझ को आना है तो जल्दी से चली आ मुझ में
बंद होना है मिरी आँखों का रस्ता इक दिन

मुझे में तहलील न होने का जुनूँ है उस को
और मैं होश से ये काम करूँगा इक दिन

मैं ने इस रात की ख़ातिर कई दिन हारे हैं
अब तो बस चाहिए मुझ को मिरा हिस्सा इक दिन

इसलिए हम ने बुराई से भी नफ़रत नहीं की
क्यूँकि हम ढूँढ रहे थे कोई अच्छा इक दिन