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ख़फ़ा है किस लिए जाने ग़ज़ल नहीं मालूम / जावेद क़मर

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ख़फ़ा है किस लिए जाने ग़ज़ल नहीं मालूम।
पङे हैं माथे पर क्यों उस के बल नहीं मालूम।

हैं दोस्त कहने को मेरे बहुत ही दानिशवर।
किसी को मेरी मुसीबत का हल नहीं मालूम।

जो एक चेहरा निगाहों में है मिरी हर पल।
मैं उस पर गीत कहूँ या ग़ज़ल नहीं मालूम।

ख़िलाफ़-ए-ज़ुल्म कोई बोलता नहीं कुछ भी।
ज़बान हो गई क्यों सब की शल नहीं मालूम।

हजारों सपने सजाए हैं लोग आँखों में।
मगर किसी को भी वक़्त-ए-अजल नहीं मालूम।

मुझे बताएगा कैसे तू मेरा मुस्तक़बिल।
नुजूमी तुझ को भी जब अपना कल नहीं मालूम।

 'क़मर' तुम्हारा, कहाँ से बदल तुम्हारा लाए।
कहाँ मिलेगा तुम्हारा बदल नहीं मालूम।