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ख़फा / मोहम्मद अलवी

कभी दिल के अंधे कुंवे में पड़ा चीखता है

कभी खून में तैरता डूबता है

कभी हड्डियों की सुरंगों में बत्ती जला कर यूं ही घूमता है

कभी कान में आके चुपके से कहता है

'तू अब तलक जी रहा है?'

बड़ा बे-हया है

मेरे जिस्म में कौन है यह

जो मुझ से खफा है