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ख़याले नावके मिजगाँ में बस हम सर पटकते हैं / भारतेंदु हरिश्चंद्र

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ख़याले नावके<ref>छोटा वाण</ref> मिजगाँ<ref>पलक</ref> में बस हम सर पटकते हैं ।
हमारे दिल में मुद्दत से ये ख़ारे<ref>काँटा</ref> ग़म खटकते हैं ।

रुख़े रौशन पै उसके गेसुए<ref>बाल</ref> शबगूँ<ref>काली</ref> लटकते हैं ।
कयामत<ref>प्रलय</ref> है मुसाफ़िर रास्तः दिन को भटकते हैं ।

फ़ुगाँ<ref>आह</ref> करती है बुलबुल याद में गर गुल के ऐ गुलची<ref>पुष्प चुनने वाला</ref> ।
सदा इक आह की आती है जब गुंचे<ref>कलियाँ</ref> चटकते हैं ।

रिहा करता नहीं सैयाद हम को मौसिमे गुल में ।
कफ़स<ref>पिंजड़ा</ref> में दम जो घबराता है सर दे दे पटकते हैं ।

उड़ा दूँगा 'रसा' मैं धज्जियाँ दामाने<ref>अंचल</ref> सहरा<ref>जंगल</ref> की ।
अबस<ref>व्यर्थ</ref> खारे बियाबाँ मेरे दामन से अटकते हैं ।


शब्दार्थ
<references/>