Last modified on 8 अक्टूबर 2013, at 13:45

ख़याल भी कभी आए न चाह करने का / सफ़ी औरंगाबादी

ख़याल भी कभी आए न चाह करने का
इलाही इश्क़ है नाम अब गुनाह करने का

उसे जो मौक़ा मिला इश्तिबाह करने का
जनाब-ए-दिल ये नतीजा है आह करने का

किसी के दिल को लिया है तो उस को दिल समझो
नहीं है माल ये ऐसा तबाह करने का

सराह कर उन्हें मग़रूर कर दिया सब ने
नतीज़ा ख़ूब हुआ वाह वाह करने का

न पूछ हम से हक़ीक़त शराब की वाइज़
नहीं है तुझ में सलीक़ा गुनाह करने का

ख़याल में किसी काफ़िर के ज़ुल्म-ए-बे-जा पर
ख़याल आया ख़ुदा को गवाह करने का

‘सफ़ी’ वो कब किसी ख़त का जवाब देते हैं
मरज़ है तुझ को भी काग़ज़ सियाह करने का