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ख़रीद-फ़रोख़्त / विजयशंकर चतुर्वेदी

चुटकी बजाते हुए जब कोई कहता है
कि वह खड़े-खड़े ख़रीद सकता है मुझे
तो ख़ून का घूँट पीकर रह जाता हूँ मैं ।

लेकिन एक सुबह पता चलता है —
मुझे तो रोज़ ही बेच देते हैं सौदागर
कभी इस मुल्क़, तो कभी उस मुल्क़ के हाथों ।

मैं जिस दफ़्तर में काम करता हूँ
उससे भी राय नहीं ली जाती
दफ़्तर समेत बेच दिया जाता हूँ ।
रोज़ बेच दी जाती है मेरी मेहनत

माता-पिता का दिया मेरा नाम,
जहाँ पैदा हुआ था वह गाँव भी बेच दिया जाता है।
वह क़ब्रिस्तान, वह शमशान भी नहीं बख़्शा जाता
जहाँ पड़े हैं हमारे पुरखों के अवशेष ।

ड्रायवर से बिना पूछे
बेच दी जाती है उसकी ड्रायवरी ।
मज़दूर की निहाई,
मछुआरे का जाल,
बढ़ई का रन्दा,
लोहार की हाल,
तमाम पेशे बेच दिए जाते हैं ।

काश्तकार बेच दिए जाते हैं खड़ी फ़सलों समेत
नदियों का हो जाता है सौदा मछलियों से बिना पूछे ।
खनिज बेच दिए जाते हैं,
बेच दिया जाता है आकाश-पाताल,
हमारी तन्हाइयाँ तक नहीं बख़्शते बाज़ार के ये बहेलिये ।

हमारी नीन्द, हमारी सादगी
हमारे सुकून की लगाई जाती है बोली,
गर्भ में पल रहे शिशुओं तक का हो जाता है मोलभाव ।
यों तो कुछ लोग हमेशा रहते हैं बिकने को आतुर,
लेकिन बिकना नहीं चाहती वह स्त्री भी
जो खड़ी रहती है खम्भे के नीचे ग्राहक के इन्तज़ार में ।

हमारी ख़रीद-फ़रोख़्त में कोई नहीं पूछता हमारी मर्ज़ी
कोई नहीं बताता कि कितने में हुआ हमारा सौदा, किसके साथ ।
मेरे जानते तो कोई नहीं लगा सकता मोल आत्मा का
पर वह भी बेच दी जाती है कौड़ियों के मोल बिना हमें बताए।
जिसके बारे में हमें पता चलता है,
एक बिके हुए दिन की पराई सुबह में ।