Last modified on 17 अगस्त 2013, at 10:12

ख़ामोशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना / 'साक़ी' फ़ारुक़ी

सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:12, 17 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='साक़ी' फ़ारुक़ी }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ामोश...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ख़ामोशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना

ये जुदाई हे के निस्याँ का जहन्नम कोई
राख हो जाए न यादों का ज़ख़ीरा अपना

इन हवाओं में ये सिसकी की सदा कैसी है
बैन करता है कोई दर्द पुराना अपना

आग की तरह रहे आग से मंसूब रहे
जब उसे छोड़ दिया ख़ाक था शोला अपना

हम उसे भूल गए तो भी न पूछा उस ने
हम से काफ़िर से भी जिज़्या नहीं माँगा अपना

ये नया दुख के मोहब्बत से हुए हैं सैराब
प्यास के बोझ से डूबा न सफ़ीना अपना