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ख़ामोशी / कल्पना लालजी

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कौन कहता है ख़ामोशी की आवाज नहीं होती
मैंने सुना है उसे अँधेरे कमरों में रोते हुए
सिसकियाँ सुन कर दहल उठा था मन मेरा
कौन कहता है उसके तड़पने में परवाज नहीं होती
मैंने देखा है उसकी उमंगों को
आंसुओं में ढल कर बहते हुए
उन आंसुओं ने मसोस लिया था मन मेरा
कौन कहता है उसकी सांसों में वह आस नहीं होती
मैंने महसूस किया है उसकी व्याकुलता को
पल दर पल की आकुलता को
उस सन्नाटे में आत्मसात हो गया था मन मेरा
कौन कहता है ख़ामोशी से बात नहीं होती
मैंने निश्चल बिता दिए घंटों
ख़ामोशी के खामोश आँचल में और
उसने जीत लिया था मन मेरा
कौन कहता है जुबां खामोश नहीं होती
सी लिया है लबों को मैंने
फिर न कभी खुलेंगे सोच कर ऐसा
और इसी कसम ने बांध लिया है तन मेरा
कौन कहता है ख़ामोशी की पहचान नहीं होती
काली स्याही से लिखी है ऊपरवाले ने
अन्धेरी रात में तकदीर उसकीं
देखतें ही पह्चान गया था मन मेरा
कौन कहता है ख़ामोशी का कोई साथ नहीं देता
रोका था बहुत खुद को मगर
साथ उसका ही भाया था मुझें
और सदा ही साथ उसने निभाया है मेरा
अब न कहना ख़ामोशी की आवाज़ नहीं होती
बंद लबों के होते हुए भी
ख़ामोशी चीख़ उठती है
पुकार उठतीं है
कौन कहता है ख़ामोशी की आवाज़ नहीं होती