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ख़िज़ाँ के उजड़ते शजर / विकास जोशी

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मुस्कुराए सदी हो गई है
दर्द में क्या कमी हो गई है ?

इस तरह से मिली है वो जैसे
ज़िन्दगी अजनबी हो गई है

जी रहे खुद की खातिर यहां सब
क्या अजब बेबसी हो गई है

इक तेरे छत पे आ जाने से ही
हर तरफ चांदनी हो गई है

ज़ोर खामोशियों का है लेकिन
इक हंसी लाज़मी हो गई है

मुन्तज़िर हूँ इधर मैं ख़ुशी का
वो उधर मुल्तवी हो गई है

जो थीं मजबूरियां उम्र भर की
अब मेरी सादगी हो गई है

पढ़ सको तो पढो चेहरे को
दास्ताँ अनकही हो गई है

ढूंढ लेगी मुझे वक़्त पर वो
मौत भी मतलबी हो गई है