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ख़ुद से ही डरने लगे हैं अब तो अक्सर सोचकर / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
ख़ुद से ही डरने लगे हैं अब तो अक्सर सोचकर ।
हाथ में रखने लगे हैं लोग पत्थर सोचकर।
हर तरफ़ ठहरी हुई-सी ज़िंदगी है जब यहाँ
सोचता हूँ कुछ बदल जाना है बेहतर सोचकर ।
अब चढ़ावों पर टिकी हैं आस्थाएँ देखिए
हँस पड़ा पूजा के मंदिर को मैं दफ़्तर सोचकर ।
इसमें दुनिया भर की चीज़ें आ गईं बाज़ार की
आज तक रहता रहा हूँ मैं जिसे घर सोचकर ।
मैं उतरता आ रहा हूँ जल-प्रपातों की तरह
एक दिन पाऊँगा मैं भी इक समंदर सोचकर ।
यूँ तो बाहर मुस्कराती हैं बहुत लाचारियाँ
काँप जाता हूँ मगर मैं इनके भीतर सोचकर ।
भागते पहियों पे साँसों के कहा, जो भी कहा
इस हुनर के साथ लेकिन कुछ ठहरकर सोचकर ।