Last modified on 29 अगस्त 2009, at 13:15

ख़ुमार बाराबंकवी / परिचय

Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:15, 29 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachnakaarParichay |रचनाकार=खुमार बाराबंकवी }} <poem> 15 सितम्बर वर्ष 1919 में ज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


15 सितम्बर वर्ष 1919 में जन्मे इस इंसान का नाम यूँ तो "मोहम्मद हैदर खान" था लेकिन शायद ही कोई उनके इस नाम से वाकिफ हो, वो तो मशहूर थे खुमार बाराबंकवी या खुमार साहब के नाम से | बाराबंकी जिले को अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने वाले अजीम शायर खुमार बाराबंकवी को प्यार से बेहद कम लोग 'दुल्लन' भी बुलाते थे |

"खुमार" ने शहर के सिटी इंटर कालेज से आठवीं तक शिक्षा ग्रहण की । इसके पश्चात वह राजकीय इंटर कालेज बाराबंकी जिसकी मान्यता उस समय हाईस्कूल तक ही थी वहां से कक्षा 10 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात लखनऊ के जुबली इंटर कालेज में उन्होंने दाखिला लिया लेकिन उनका मन पढ़ाई में नहीं लगा।

वर्ष 1938 से ही उन्होंने मुशायरों में भाग लेना शुरू कर दिया। ढाई वर्ष के अंतराल में ही वे पूरे मुल्क में प्रसिद्ध हो गये। उस दौर में जिगर मुरादाबादी उच्च कोटि के शायर माने जाते थे चूंकि खुमार ने 'तरन्नुम' से ही शुरूआत की, इसलिये शीघ्र ही वे जिगर मुरादाबादी के समकक्ष पहुंच गये। मुशायरों में अगर मजरूह सुलतानपुरी साहब के बाद अगर किसी को तवज्जो दी जाती थी तो वो "खुमार साहब" ही थे | महान शायर और गीतकार मजरूह सुलतानपुरी आपके अज़ीज़ दोस्त थे | जितना बड़ा कद विनम्रता की उतनी ही बड़ी मूरत, कभी-कभी तो मुशायरों में आपको घंटों तक ग़ज़ल पढ़नी पड़ती थी, लोग उठने ही नहीं देते थे | हर मिसरे के बाद "आदाब" कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती है । आपका अंदाजे बयां भी औरों से अलग था जो इनकी खुबसूरत गज़लों में और भी चार चाँद लगता था |
वैसे तो खुमार साहब मुशायरों को ही तवज्जो देते थे , लेकिन फिर भी उन्होंने कुछ फिल्मो के गीत भी लिखे , जो उनकी गज़लों की तरह ही उम्दा हैं |
हर दिल अजीज 'खुमार बाराबंकवी' को वर्ष 1942-43 में प्रख्यात फिल्म निर्देशक एआर अख्तर ने मुम्बई बुला लिया। यहां से शुरू हुआ उनका फिल्मी सफर और वे फिल्मी दुनिया में एक सफल गीतकार के रूप में जुड़ गये।
आपने 1955 में फिल्म "रुखसाना" के लिये"शकील बदायूँनी" के साथ गाने लिखे थे। उससे पहले 1946 में फिल्म "शहंशाह " के एक गीत "चाह बरबाद करेगी" को "खुमार" साहब ने हीं लिखा था, जिसे संगीत से सजाया था "नौशाद" ने और अपनी आवाज़ दी थी गायकी के बेताज बादशाह "के०एल०सहगल" साहब ने |

फिल्म 'बारादरी' के लिये लिखा गया उनका यह गीत 'तस्वीर बनाता हूं, तस्वीर नहीं बनती', 'भुला नहीं देना', आज भी लोगों के दिलों में बसा है। उन्होंने तमाम फिल्मों के लिये 'अपने किये पे कोई परेशान हो गया', 'एक दिल और तलबगार है बहुत', 'दिल की महफिल सजी है चले आइये', 'साज हो तुम आवाज हूं मैं', 'दर्द भरा दिल भर-भर आये', 'आग लग जाये इस जिन्दगी को, मोहब्बत की बस इतनी दास्तां है', 'आई बैरन बयार, कियो सोलह सिंगार', जैसे गीत लिखे खासे लोकप्रिय हुये।
खुमार के ये गीत आज भी है हमारी जिंदगी में रस घोल देते हैं।

खुमार साहब ने चार पुस्तकें भी लिखीं ये पुस्तकें शब-ए-ताब, हदीस-ए-दीगर,आतिश-ए-तर और रख्स-ए-मचा है।

खुमार की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गई। उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, जिगर मुरादाबादी, उर्दू अवार्ड, उर्दू सेंटर कीनिया और अकादमी नवाये मीर उस्मानियां विश्वविद्यालय हैदराबाद, मल्टी कल्चरल सेंटर ओसो कनाडा, अदबी संगम न्यूयार्क, दीन दयाल जालान सम्मान वाराणसी, कमर जलालवी एलाइड्स कालेज पाकिस्तान आदि ने सम्मानित किया।

वर्ष 1992 में दुबई में खुमार की प्रसिद्धि और कामयाबी के लिये जश्न मनाया गया। 25 सितम्बर 1993 को जिले में जश्न-ए-खुमार का आयोजन किया गया। जिसमें तत्कालीन गवर्नर मोतीलाल बोरा ने एक लाख की धनराशि व प्रशस्ति पत्र उन्हें देकर सम्मानित किया। खुमार ने अपना पहला मुशायरा बरेली में पढ़ा। उनका प्रथम शेर 'वाकिफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से, इस राज को पूछो किसी बरबाद नजर से', था। खुमार का अंतिम समय काफी कष्टप्रद रहा। मृत्यु के एक वर्ष पूर्व से ही उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया था। 13 फरवरी 99 को उनकी हालत गंभीर हो गई। उन्हें लखनऊ के मेडिकल कालेज में भर्ती कराया गया। जहां 19 फरवरी की रात उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस ली। अब वह हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी यादें आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।