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ख़ुशबू बिखरी है कदम्ब के फूलों की / कुमार शिव

ख़ुशबू बिखरी है कदम्ब के फूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह सुबह
तुम्हारे साथ ।

यही समय था जब हमने सीखा था
चुप्पी का उच्चारण
इक दूजे की आँखों में रहना
कर लेना आँसू का भण्डारण

स्मृतियाॅ उभरी होंठों की भूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह सुबह
तुम्हारे साथ ।

जल भीगा एकान्त, उर्मियों का
मधुरम सम्वाद हठी चट्टानों से
दृष्टि नहीं हटती थी नदिया के
मुखड़े पर नीले पड़े निशानों से

चुभन पाँव में अब तक हरे बबूलों की
कभी गुज़ारी थी हमने यह सुबह
तुम्हारे साथ ।