Last modified on 18 अप्रैल 2011, at 11:22

ख़ौफ के बाहर / दिविक रमेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:22, 18 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मैं चौंका जब कहा उसने कि ज…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं चौंका जब कहा उसने
कि जब भी चाहा घर लौटना
लगता रहा ख़ौफ
गो कि हर्ज़ न था लौटने में
सोचता हूँ
लौटना तो चाहिए ही घर
जबकि रहना पड़ रहा हो कहीं
घर लौटने ही की तरह
 
लौटना
घर
दरअसल होता है
लौटना ख़ुद अपने में ।
घर
जब तक रहता है घर
कभी ख़त्म नहीं होती
उसकी द्वार-आँखों की
बेचैन उत्सुकताएँ
उसके आँगन-हृदय की
मचलती प्रतीक्षाएँ