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खाट पर पड़ी लड़की / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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माँ, मैं बीमार हूँ
बीमार ही होती हैं लड़कियाँ
मैं नहीं रहूँगी;
लेकिन, फिर भी जीवित रहूँगी-
गुलाबों की क्यारी में
तुलसी-चौरे में ।

इन गुलाबों की क़लम
बरसों पहले लगाई थी मैंने,
कलियाँ, अपनी आँखों के पपोटे
खोलने को व्याकुल हैं,
ये कल फूल बनकर मुस्कराएँगी।
कल मैं न रहूँगी;
पर मेरी मुस्कान
तुम्हें पँखड़ियों में दुबकी मिलेगी

तुलसी-चौरे को मैं लीपती थी
तुम साँझ को दिया जलाती थीं
सवेरे कच्चे दूध से नहलाती थीं

जब तुम साँझ को
तुलसी-चौरे पर दिया जलाओगी
मेरी सूरत तुम्हारी आँखों में
तैर जाएगी
मद्धिम बाती-सा जलता हुआ
मेरा ज़र्द शरीर
भोर तक रोशनी करता रहेगा
इस तरह मैं तुलसी-चौरे में छुपकर
मुस्कुराती रहूँगी
तेरी गीली आँखें पोंछ दूँगी
माँ, तुम रोना नहीं !

लड़कियाँ तो बीमार होती ही रहती हैं,
लड़कियाँ तो मरती ही रहती हैं,
अपने लगाए पौधे
छोड़ जाती हैं-याद के लिए बस
पौधे छोड़ जाती हैं लड़कियाँ !

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