भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिली थी, झर गई बेला / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिली थी
झर गई बेला ।

तुम्हारे प्यार के पाँवों पड़ी
अब तर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।

हवा का
लाँघकर चौखट चले आना,
रोशनी का
अन्धेरे में फफकना,
फूटकर बहना
पड़ा रहना
बिला जाना

बताता है
कि किन मजबूरियों में
मर गई बेला
खिली थी
झर गई बेला ।