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खुलने दो वातायन / राजकुमार 'रंजन'

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डोल रहे प्रश्नों को तार तार होने दो
खुलने दो वातायन दृष्टि पार होने दो

मूर्तमंत चेहरों पर स्वप्न-ध्वंस आ बैठा
जाग्रत संवादों को सुप्तवंश खा बैठा
प्राकृत संस्कारों का धुँआ धुँआ हो जाना
सबके आधिकारों पर कंशवंश छा बैठा
फिर से षडयत्रों को जारजार रोने दो

यह अबूझ अंतर है तेरे में मेरे में
होता संवाद नहीं साँझ औ सबेरे में
चेहरों के पीछे भी चेहरों का आना है
आकृति है परछाई अनुकृतियाँ घेरे में
विजयी अभियानों की अब न हार होने दो

मंगल मंसूबो को मत अपूर्ण होने दो
षड़यन्त्री कालखंड चूर्ण चूर्ण होने दो
नव विकास के र्पाहए होकर समवेत चलें
आहुतिक्रम बंद न हो यज्ञ पूर्ण हेाने दो
आत्मानंद जीवन में फिर अपार होने दो
खुलने दो वातायन दृष्टि पार होने दो