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खुशी की तलाश / पल्लवी मिश्रा

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बड़े उत्साह से एक दिन
ढूँढ़ने निकली खुशी को मैं
सोचा-
मिलेगी यह शायद
फूलों के दयार में-
या फिर मिलेगी यह मुझको
खुशबू भरे बयार में
मन्दिर में ढूँढ़ा,
मस्जिद में ढूँढ़ा,
ढूँढ़ा गिरजाघर और गुरुद्वारे में-
प्रकृति की नीरवता में ढूँढ़ा
ढूँढ़ा उत्सव और शोर शराबे में-
छुप गई है क्या यह जाकर
किसी वीराने सन्नाटे में?
या फिर बिखर-बिखर गई है
हलचल और सैर-सपाटे में?
ढूँढ़ा घर के कोने-कोने
ढूँढ़ा मैंने गली-गली-
चारों ओर नजर दौड़ाई
यह फिर भी मुझको नहीं मिली-
थक कर हार गई आखिर
छोड़ दिया यह खोज अभियान-
बस आँखें बन्द कर कुछ देर
लगाया अपने मन में ध्यान-
कि महसूस हुआ-मानो,
प्रकाश पुंज जगमगा रहा हो-
धीमे-धीमे मधुर स्वर में
कोई गीत सुरीला गा रहा हो-
दुनिया के आडम्बर में
जिस खुशी का;
एक कतरा भी था नहीं मिला,
वह खुशी अपने सम्पूर्ण रूप में व्याप्त थी
मन के ही अन्दर-
वहाँ बसी हुई थी जैसे
दुनिया एक अतिसुन्दर-
मैं ही मूर्ख, अज्ञानी थी
जो उसे
ढूँढ़ रही थी इधर-उधर।