Last modified on 31 अगस्त 2009, at 19:40

खूब पता था वो सागर है खारा पानी है / ललित मोहन त्रिवेदी

खूब पता था वो सागर है खारा पानी है !
फिर भी प्यास बुझाने पहुंचे ये हैरानी है !!

बहुत दूर तक सन्नाटों ने राह नहीं छोड़ी !
लेकिन हमने मीठे सुर की चाह नहीं छोड़ी !!

उधर नियति की और इधर अपनी मनमानी है .............

जीवन भर अपनी शर्तों पर जिसको जीना है !
मीरा या सुकरात हलाहल उसको पीना है !!

सर कटवाकर जीने की हठ हमने ठानी है ................

बहुत कसे तारों को थोड़ा ढीला होना था !
ढीले तारों को थोड़ा ठसकीला होना था !!

सुर के साथ हमेशा हमने की नादानी है ..................

आसमान को छू लेने की आस लगाली है !
हमने बैठे ठाले अपनी प्यास बढ़ाली है !!

छाया को कद समझ लिया है उस पर ज्ञानी है ?..........

अँजुरी भर अनुराग मिला तो आँगन सजा लिया !
चुटकी भर वैराग मिला तो ओढा बिछा लिया !!

माया पूरी की पूरी तो हाथ न आनी है ...................

न तो गोताखोर बने, जल में गहरे उतरे !
फ़िर भी सागर की बातें करने से नहीं डरे !!

अपने साथ सही, लेकिन यह बेईमानी है ...............

दौड़ रहे है लोग भला हम क्यों रह जाए खड़े ?
यही सोचकर, जाने कितने, अंधे, दौड़ पड़े !!

फ़िर इसको विकास कहते है ,अज़ब कहानी है ............