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खूब भटका है दर-ब-दर कोई / वीनस केसरी

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खूब भटका है दर-ब-दर कोई।
ले के लौटा है तब हुनर कोई।

अब पशेमां नहीं बशर कोई।
ख़ाक होगी नई सहर कोई।

हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,
सोचता होगा किस कदर कोई।

गमज़दा देखकर परिंदों को,
खुश कहाँ रह सका शज़र कोई।

धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई।

कोई खुशियों में खुश नहीं होता,
गम से रहता है बेखबर कोई।

पाँव को मंजिलों की कैद न दे,
बख्श दे मुझको फिर सफर कोई।

गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,
फेर लेता है जब नज़र कोई।

सामने है तवील तन्हा सफर
मुन्तजिर है न मुन्तज़र कोई

बेहयाई की हद भी है 'वीनस',
तुझपे होता नहीं असर कोई।