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खूब रचेगी / भावना कुँअर

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होती हूँ रोज
अपमानित और
तिरस्कृत भी।
चलाती हूँ कलम
भावों में डुबो।
अक्सर रहती हूँ
मौन ही मैं तो
है बोलती कलम।
भाता नहीं क्यों
आगे बढ़ना मेरा?
क्यों मिटाते हैं
मेरा वो वज़ूद कि
उठ ना सकूँ
दोबारा से कलम।
खोद रहे हैं
जड़ों को मेरी अब
लगा दिया है
घुन मेरी सोचों में
टूटकर मैं
हो जाती चूर-चूर
न साथ देता
अगर मेरा साथी
न ही बढ़ाता
लगातार हौसला
न पूरा होता
लेखन का काफ़िला
बहुत हुआ
अब नहीं रुकेगी
कभी लेखनी
और आगे बढ़ेगी
खूब रचेगी
षड़यन्त्रों के हत्थे
बिल्कुल न चढ़ेगी।
-०-