भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेतखारे मा चहकत मैना / मिलन मलरिहा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेतखारे मा चहकत मैना, पड़की करे मुसकान रे
सुग्घर दमदम खेत मा संगी, नाचत हावय धान रे

घरोघर कहरत माटी के भीतिहा छुही म ओहा लिपाय रे
चुल्हा के आगी कुहरा देवत, ए पारा ओ पारा जाय रे
बबा के गोरसी मा चुरत हावय, अंगाकर परसा पान रे

धान ह निच्चट छटकगे भाई आगे देवारी तिहार रे
घाम ह अजब निटोरत हावय सुहावत अमरैया खार रे
कटखोलवा रुख ल ठोनकत हावय देवत बनकुकरा तान रे

पवन ह धरे बसरी धुन ला, मन ला देहे हिलोर रे
कार्तिक बहुरिया आवत हावय, जाड़ के मोटरा जोर रे
खेत के पारे सरसों चंदैनी, लेवतहे मोरे परान रे

नदियाँ नरवा कलकल छलछल निरमल बोहावत धार रे
इही हे गंगा जमुना हमरबर शिवनाथ निलागर पार रे
सरग सही मोर गांव ला साजे, इही मोर सनसार रे