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खेत, पर्वत, पेड़, झरने अर समंदर देखकर / कविता विकास
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खेत, पर्वत, पेड़, झरने अर समंदर देखकर
रश्क होता है मुझे धरती के जेवर देखकर
नीर, नभ, सूरज, शशि, कचनार, केसर देखकर
सिर झुका जाता है मौला तेरे जौहर देखकर
आँख नम हो जाती है उजड़े घरों की बस्ती पर
बीता बचपन था जहाँ वह प्यारा नैहर देखकर
जो उगाती नफ़रतों की फस्ल हैं इस मुल्क में
रंज होता है नयी नस्लों के तेवर देखकर
था नया ही उड़ना सीखा एक गौरेया ने अभी
आज है सहमी हुई बिखरे हुए पर देखकर
उसकी ख़ामोशी पर मत जा, आग भी वह आब भी
दंग रह जाएगा एक तूफ़ान भीतर देखकर
एक मुद्दत हो गयी तुमको मिले, बातें किये
चंद पल रुक जाओ जी लूँ तुमको जीभर देखकर
कर ले पैदा खुद में जज़्बा मुश्किलों से लड़ने का
फिर न हट पायेगा पीछे, राह दूभर देखकर