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खेत न खेतीबारी / राम सेंगर

कठिन समय ने खाल उतारी ।

ख़ाक विरासत थी पुरखों की
आग समझ जो हमने धोंकी
लपट कहाँ उड़ गई न जाने
खोज अनवरत अब भी ज़ारी ।

मिले मज़ूरी जीने-भर की
लची कमर असमय जाँगर की
मेहनत का फल मिले उसे क्या
जिसका खेत न खेतीबारी ।

दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अन्धा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी ।

रोग-शोक-दुख, दवा न दारू
पकड़े खाट गई महरारू
गूँगा और अनाथ हुआ घर
बिछुड़ गए सब बारी-बारी ।

कैसे-कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
सुधियाँ धुलीं भविष्य बुताना
साँसत में है जान हमारी ।

कठिन समय ने खाल उतारी ।