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खेल / विजय गौड़

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ऐसे ही किसी समय में
गूँजती रही होगी किलकारियाँ
बाईस्कोप वाले के पीछे-पीछे
डुग-डुगी बजाता
कोई बन्दर वाला
दिखाता रहा होगा नाच
जमूरे की जान की भीख माँगता
कोई न कोई मदारी
चूर्लू-ढिचक करते हुए
कर देता रहा होगा गायब
हाथ के सिक्के को,
सिक्के पर छपे सन (समय) का
नहीं होगा किसी को भान
दूर खड़े जमूरे की जेब में
पहुँचा हुआ सिक्का
चौंका गया होगा भीड़ को
राजधानी में बैठकर दिखाता है
मदारी खेल,
सिक्का है क्लिंटन के हाथ में
आज़ादी का मतलब है क्या
नहीं उलझता कोई इस विवाद में।