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खोई हुई औरत / अनिल अनलहातु

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रात के उस हल्के सांवलेपन में
वहाँ उधर, बेगमपेट काजीवे के
बस अड्डे के कोने में
एक औरत
गुडमुड़ियाई लेटी है,
और कुछ कुविचार उछल रहे हैं
हवा में लहराते हुए.
इस नंगे हमाम में
मैं अपने ही बारे में सोचता
अपनी विकृत सोचों पर
मूत रहा होता हूँ।

बहुत पहले रात्रि की गहन कालिमा में
एक रात
उठती है वह औरत हौले–से
और चिर निद्रा में डूबे गावों से
बहिरागत, किसी दूर के
शहर–शहरात में निकल जाती है।

किसी उजाड़ टीले पर लगे
बबूल की झाड़ियों से
एक फूल सूखकर गिर पड़ता है,
और मैं अपने दुःस्वप्नों के
मकड़जाल में उलझा
शहर की मुधि तक
जाकर लौट पड़ता हूँ।

वह औरत जो गाँव से
बाहर
किसी शहर–शहरात की ओर
निकल पड़ती है,
दिखती है मुझे
बेगमपेट काजीवे के किसी
वीराने बस स्टेशन के कोने में
गुडमुड़िया कर सोई हुई है।

लैम्प-पोस्टों के नीम अंधेरे में
मैं जाता हूँ दूर...
किसी नखलिस्तान की तरफ
और एक सूने, वीरान पड़े
बौद्ध मठ में
एक शिशु को
रोता हुआ पाता हूँ।

वह औरत
सुबह होने की यंत्रणा में
घुटती हुई
उठती है और
शहर की घुमावदार
भूल–भुलैया गलियों की
भीड़ में
खो जाती है।

दिन के तीसरे पहर तब
थका–मांदा, लड़खड़ाता
लौटता हूँ मैं
और अपनी ही बनाई
घृणा की ज़मीन पर
अपनी लाश बिछाकर
सो जाता हूँ।