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खो गई चीज़ें / सुशान्त सुप्रिय

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वे कुछ आम-सी चीज़ें थीं
जो मेरी स्मृति में से
खो गई थीं

वे विस्मृति की झाड़ियों में
बचपन के गिल्ली-डंडे की
खोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं

वे पुरानी एल्बम में दबे
दाग-धब्बों से भरे कुछ
श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थीं

वे पेड़ों की ऊँची शाखाओं में
फड़फड़ाती फट गई
पतंगों-सी अटकी हुई थीं

वे कहानी सुनते-सुनते सो गए
बच्चों की नींद में
अधूरे सपनों-सी खड़ी हुई थीं

कभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ में
हम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थे
तब हम अपनी स्मृति के
किसी ख़ाली कोने को
फिर से भरा हुआ पाते थे ...

खो गई चीज़ें
वास्तव में कभी नहीं खोती हैं
दरअसल वे उसी समय
कहीं और मौजूद होती हैं