http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%96%E0%A5%8C%E0%A4%AB_%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%81_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF_%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&feed=atom&action=historyखौफ खाया कबूतरी धुआँ / परिचय दास - अवतरण इतिहास2024-03-28T19:38:59Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%96%E0%A5%8C%E0%A4%AB_%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%81_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF_%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=130019&oldid=prevNeeraj Daiya: नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= परिचय दास |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem> पिछली रात को मैंने…2011-10-05T06:39:25Z<p>नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= परिचय दास |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem> पिछली रात को मैंने…</p>
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|रचनाकार= परिचय दास<br />
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पिछली रात को मैंने नींद से जागकर अचानक सोचा<br />
जिसकी प्रज्ञा के आलोक से आलोकित होता मन का गहन अंधकार<br />
वहाँ मुग्ध मनुष्य देखता होगा प्रतिदिन<br />
पानी में न डूबने वाली आत्मा की गति को<br />
अकेले रास्ते में आत्ममुग्ध प्रतिक्रियाहीन चलते हुए अब<br />
इस जन्म के प्रत्याहार के लिए <br />
कोई उसे सपनों का एक क्षण बना सकता <br />
आँखों में बिंबित था उदित सूर्य<br />
बह रही थी नदी, लहराती हुई, अपनी धुन में मग्न<br />
कुछ दिनों के बाद फूल निकल आते हैं पत्तों की ओट में, बहार अनेक<br />
स्वप्न मनुष्य की पकड़ से फिसल जाते हैं वैसे ही<br />
खौफ खाए कबूतरी-धुएँ को दर्पण अमें बदलने<br />
की व्यर्थ कोशिश कर रहे हैं<br />
विश्वास अब छुरी की नोक पर से निथरता है<br />
पर्दा हटा दूँ, खोल दूँ वातायन, प्रवेश करे सरसराती हवा<br />
भाटों की विरुदावली सुन इस लोक को ही भुला बैठा अल्पतोषी मैं<br />
जेल के द्वार को यदि हो जाए प्रज्ञा, मुक्त हो निर्दोष <br />
बंदी हो जाएँ अपराधी<br />
मैं सौरमंडल खोजता अपना, अंतरिक्ष में भटकता शब्द,<br />
सुर ढूँढता अपना<br />
फिर वापस लौटने के लिए तड़पता भी हूँ<br />
और न लौट सकने की सत्यता जानकर <br />
नए स्वादों के साथ आनंद भी लेता हूँ<br />
मैं मर रहे व्यक्ति के चेहरे पर उकरी जिंदगी की<br />
आखिरी इच्छा हूँ<br />
खोए हुए जंगल के हॄदय-पिण्ड से निकला हुआ स्वर<br />
मुँह उठा कर देखाता हूँ, मेरी ओर अँगली दिखाकर जादूगर<br />
हाँक रहे हैं :<br />
वह देखिए मनुष्य, वह देखिए भूत !<br />
उस रात को मेरे सपनों में ग्रीष्म की आँधियों ने <br />
पेड़ की टहनियों से पत्तों को तोड़कर धराशाही कर दिया ।</poem></div>Neeraj Daiya