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ख्वाब मेरे भटकते रहे रात भर / महेश कटारे सुगम

ख्वाब मेरे भटकते रहे रात भर ।
नींद के सुर उलझते रहे रात भर ।

प्रश्न वेताल बनकर कसकते रहे,
बोझ बनकर लटकते रहे रात भर ।

सुख के साये गले से नहीं लग सके,
हाथ मेरा झटकते रहे रात भर ।

ज़ख्म जो भी दिए दोस्तों ने दिए,
याद बनकर खटकते रहे रात भर ।

मैं पकड़ता रहा हर ख़ुशी का लम्हा,
हाथ से वो रपटते रहे रात भर ।