भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा-4 (कपड़े) / कुमार प्रशांत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:59, 24 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार प्रशांत |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सभी ने कपड़े उतार दिए हैं
सभी नदी में डुबकी लगाएँगे
सभी पाप की गठरी ढो कर लाए हैं
सभी अपनी गठरी यहीं छोड़ जाएँगे

बस इतना ही :
बहती नदी रुकती नहीं है
बहती नदी थकती नहीं है
बहती नदी पूछती नहीं है
कहाँ से आए, क्या लाए, क्यों लाए और छोड़े किसके लिए जाते हो

नदी ने सबको कपड़े पहना दिए हैं
पानी की मटमैली चादर के नीचे
न आदमी है, न पाप, न पुण्य, न हैसियत
सिर्फ़ नदी है
जो सबके भीतर बह रही है.