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गंगा / 7 / संजय तिवारी

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किसी पर्वत की
पीर नही हूँ
बहता या ठहरा हुआ
नीर नही हूँ
विरंचि की थकान की आह हूँ
अथाह हूँ
जिसने यह सब रचा
कुछ न बचा
धरती
आकाश
तारे
ग्रह
नक्षत्र
कोटि कोटि ब्रह्मांड
कोटि कोटि संसार
कोटि कोटि दर्शन
कोटि कोटि आधार
लेकिन मैं एक हूँ
इसलिए
कोटि कोटि ब्रह्मांडो में
नेक हूँ
विलक्षण
अपरप्य
अद्वितीय
अनोंखी
अकेली हूँ
ब्रह्मा की गोद मे खेली हूँ
करोड़ो सृष्टियों में
और कही नही हूँ
केवल यही हूँ
आदि देव की इच्छा
या मेरी परीक्षा
एक भगीरथ आता है
मुझे पाता है
महातपस्वी की जटाओ से
शिखर से
घटाओ से
उतार लाता है
बड़े तप से पाता है
मेरा प्रचंड प्रवाह
सुनती हूँ
सगरपुत्रो की आह
वेदना
और टीस
कातर मानव ने पिघला दिया
बहुत कुछ दिखला दिया
उतरी
आ गयी
कुछ खोया
कुछ पा गयी
लेकिन तुमने तो
 कही का नही छोड़ा
शालिग्राम को भी
 बना दिया रोड़ा
प्रवाह को दिया बंधन
न सुन पाया मेरा करुण क्रंदन
मैं तड़पती रही
कराहती रही
तुम बांधते रहे
अलंघ्य को लांघते रहे
परमशक्ति होकर भी
हांफ रही हूँ
आक्रोश की पीड़ा से
कांप रही हूँ
सागरमाथा से सागर तक
परमधाम कैलाश से
कवियों के आखर तक
बहुत गायी गयी हूँ
घोर कलियुग के मानव
अब तो जाग
मैं तेरे वास्ते
लायी गयी हूँ।