भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गगन ने धरा से कहा एक दिन / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गगन ने धरा से कहा एक दिन,
सिर्फ पत्थर बसे हैं तुम्हारे हृदय में!

झरे फूल कितने इसी धूल में,
पर कभी भी तुम्हें मोह करना न आता,
मिटे रूप कितने तुम्हारे कणों में,
कभी भी तुम्हें याद करना न भाता!

सदा अर्थियों की चितायें जलीं,
पर तुम्हें एक आँसू बहाना न आया,
सदा तुम मिटाती रही कि तुम पर
कभी वेदना का जमाना न आया!

न जाने तुम्हारा न नाता किसी से
किसी का तुम्हें साथ भाता नहीं है,
कि उर्वर तुम्हें जो बनाया प्रकृति ने
वही गर्व उर में समाता नहीं है!
सदा खेलती तुम रही जीवनो से,
न काँटे खटकते तुम्हारे हृदय में!

धरा कुछ हिली अब न बोलो गगन,
मै विवश हूँ कि मुझको दिखाना न आता,
सतह देखती रोशनी ये तुम्हारी,
उसे प्राण मन मे समाना न आता!

धधकती अनल को न देखा न देखी
करुण वारि-धारा छिपाये हुये हूँ,
इसी धूल की रुक्षता के सहारे
अरे सृष्टि का क्रम चलाये हुये हूँ!

मिटाया न अपने लिये हाय उनको,
कि जिनको खिलाय कभी अँक मे ले!
जनम औ'मरण बीच मैं ही पडी हूँ,
न जीवन जनम दे, मरण गोद ले ले!
कहो सुख कहूँ या इसे दुःख मानूँ,
बसा एक कर्तव्य मेरे हृदय में!