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गज़ भर छाँव नहीं / राजेन्द्र गौतम

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अरसे से
इस मौसम में
आया बदलाव नहीं ।

झुलसातीं
बारूदी लपटें
‘डल’ के नील कमल
चीड़-चिनारों के
जलने से
घाटी उठी दहल
जेठ बने
सब सावन फागुन
गज़ भर छाँव नहीं ।

अपनों ने
डसने की सीखी
जब तक्षक-शैली
परिधि मसानों की
तब से ही
गुलशन तक फैली
कोई तो
टहनी हो ऐसी
जिस पर घाव नहीं ।

रिश्तों की
हरियाली निगले
भूखा रेगिस्तान
मृत्यु-मंत्र
जपता हो जैसे
कापालिक वीरान
रेत हुई
नदियों में भी
क्या चलती नाव कहीं ।