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गढ़ाकोला / रमेश आज़ाद

यकीनन...
मेरा ही था वह गांव भी
उसकी गलियां मेरी थीं
उसकी गायें मेरी थीं
उसकी फसलें भी मेरी थीं
मेरी थीं उसकी माटी-रोटी-बेटी,
वहीं फुलवा दैया के कंधे पर चढ़
उनके कान के बड़े-बड़े छेद में
उंगली फंसा देता था
वह चीखती थी
मैं हंसता था...

अपनी फुलवा दैया के
उसी गांव में
अब मैं जाना चाहता हूं
वहीं जहां पीपल के पत्तों से
छनकर बहती थीं हवाएं
और मैं उसकी सोर पर पसरा रहता था।
वहां बारिश होती थी
मेरे खेतों के लिए
और चतुरी का छप्पर टपकता था,
तब नारोसिंह
अलाव जलाए
पका और खा रहे होते थे भुट्टे।
मैं चुपके से
दिन के उजाले में
तोड़ लाता था उन्हीं के भुट्टे
रात के अंधेरे में मैं
मिसरी चौधरी के खजूर पर चढ़
उतार लाता था
ताड़ी भरी लमनी,
किसुनभोग आम के लिए
कितनी बार पिटा
बड़का भैया से
पर हर बार चकमा दे देता बलेसरा को...

मेरे जिस्म पर
चमकते पसीने देख
दमयंती दीदी महक उठती
खरोंच देख
मां सहलाती
कंटैला का दूध
और नीम की पत्तियां रख असीसती।

पिता-
उफनते दूध-सा भभकते
पर गबरू जवान होते देख
उनकी बांछे खिल उठतीं
बाबा-बुड़बुड़ करते रहते...

इतना...
इतना सब होने के बाद
तिनके सा उड़ गया मैं।
उस अनदिखी ताकत ने
मुझे ही
मेरे ही गढ़ाकोला से
बाहर धकेल दिया
और मैं...
मैं कुछ भी नहीं कर सका
कोई भी कुछ नहीं कर सका।
न फिर कोई गांव पा सका
न गढ़ाकोला

कोई तो बताए
कैसा है मेरा गांव
कैसा हूं मैं
उस गांव का बाशिंदा...