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गन्धवाह-सा बौराया मन / प्रेम शर्मा

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गन्धवाह-सा
बौराया मन
आहत स्वर उभरे

विस्मृतियों का
गर्भ चीरकर
जन्मा सुधियों का
मृग-छौना,
             ज्यों कुहरे से
             ढकी झील में
             प्रतिबिम्बित हो
             चाँद सलोना,
निन्दियारी
पलकों पर सहसा
अनगिन स्वप्न तिरे

             रूपायित हो
             ढली चेतना
             जिस दिन
             ऋतुपर्णा छाहों में
कोई मेरा
सहभागी था
नागपाश रचती
बाँहों में
             शिथिल होगई
             स्वप्निल काया
             रोम-रोम सिहरे

पराभूत
मन का हर सम्भव
भटकी हुई
साधनाएँ हैं
             प्रतिपल जलते
             हुए सूर्य-सी
             निर्व्यतीत यातनाएँ हैं
ठोस
धरातल से टकराकर
बिम्ब सभी बिखरे

(कादम्बिनी, मई 1964)