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गरीबा / तिली पांत / पृष्ठ - 21 / नूतन प्रसाद शर्मा

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नाटक ला लेखक मन देखिन, टकटक खोल के राखिन आंख
जरत ह्रदय हा इरखा कारन, उंकर गिरत लेखन के साख।
दानी अंदरूनी मन सोचत- अब आगू आवत ग्रामीण
हमर साथ मं टक्कर लेवत, खोज लीन साहित्यिक रीढ़।
मेहरू बहल उंहे चुप सुतगिन, कार रात मं कहुंचो जांय!
बड़े फजर होइस तंह मेहरू, सुन्तापुर बर करथय कूच।
अपन गांव मं पहुंचिस मेहरू, तंह कातिक संग होगिस भेंट
खैरागढ़ के व्यथा ला कहिदिस, कुछ नइ रखिस लुका के पेट।
कातिक हा मेहरू ला छोड़िस, परब के बारे करत विचार-
“देवारी हा भेद बढ़ाथय, मानव बीच परत हे सन्द।
जउन हा पहिली मानिस होही, भेद के दीवारी तिवहार
ओहर रोइस के सुख मानिस, चुप लुकाय हे एकर भेद।
जगमग दिया बरत एक घर मं, पर के घर मं घुप अंधियार
एक आदमी कोंहकोंह खावत, दूसर हा रहि जात उपास।”
फूलबती हा तिर ले निकलिस, जेन धरे प्रेतिन के रूप
छुही पोताय नाक मुंह मुड़ पर, मुसकावत कातिक ला देख।
कातिक फूलबती ला देखत, जमों फिकर ला तिरिया दीस
दुनों बीच मं गोठ चलत हे, याने चलत प्रेम के गोठ।
“ए टोनही”- काये गा टोनहा”- तिर आ बैठ”- बता का काम?”
“तड़फत हंव”-मन मड़ा कुछेच दिन”-”चल अभिघर-”होहंव बदनाम।”
कातिक हा मुसकावत बोलिस-”होइस अभी जेन सम्वाद
एहर हमर दुनों झन के नइ, हम्मन नकल करे हन आज।
दुखिया अउर गरीबा दुन्नों, टोनहा टोनही मं बदनाम
उंकर बीच मं चलतिस ताना, तब सम्वाद कमातिस नाम।”
गांव नता मं भउजी लगथय, ते झरिहारिन आइस पास
किहिस-”खोज ले लान देरानी, कब तक ले रहिबे बिपताय!
किंजरत गली कुंवरबोंड़का अस, उमर तोर हे करे बिहाव
यदि टूरी नइ चाहत तोला, लुगरा पोलखा पहिर सुएम।”
कातिक बोलिस- मंय सोचत हंव- मिल जातिक मुड़ढक्की रोग
पोथी पतरा देखा डरे हंव, लेकिन कहां मिलत हे जोग!
वइसे एक नजर में हे जेकर पर रखत भरोसा।
जेहर साथ दिही जीवन भर कभू नइ दिही धोखा।
झरिहारिन अउ बात बढ़ाइस-”देवर, तंय हा धीरज राख
हरहिन्छा आसिस देवत हंव- तोर मुड़ी मं लगिहय मौर।”
“तोर बात हा सत्तम उतरय, एकदम तूक मार तो दांव
अगर सफलता हम अमराबो, तोर धोकर के परबो पांव।”
“खाल्हे गिरत निहू बन के तुम, डारत मोर मुड़ी मं भार
एक खुंटा मं बंध के रहिहव- सुक सनिचर पंड़री बुधवार।”
झरिहारिन, फूलबती ला पूछिस- “तंय हा बता गोठ सच छूट
मोर परन हा पूरा होहय, या फिर जाहय रट ले टूट?”
फूलबती हा कुछ नइ बोलिस, ठेंगवा देखा के धर लिस राह
कातिक घलो खेत तन जावत, मन मं भरे मया उत्साह।
धनहा खेत मं कातिक किंजरत, मन मं खुशी ह्रदय मं हर्ष
धान के कद हा हवय नरी तक, महमहात हे ओकर फूल।
हवा देखावत मया धान पर, जूड़ हवा मं झूलत धान
एहर खाय जिनिस ए तब तो- एकर मान सबो ले ऊंच।
खेत जांच के कातिक लहुटिस, धनवा तिर फोरत सब हाल-
“मालिक, धान फंसे हे कंसकंस, खूब अन्न मिलिहय ए साल।
बदरा झुण्डा के निसनाबुत, लाम गरा दाना मन पोख
मेड़ पार मं धान फंसे हे, मंय हा बोलत हंव बिन फोंक।”
धनवा भड़किस- “तंय दोखहा हस, का होवत यदि गसगस धान
बनी भुती कतको नापे हन, ओमां कभू रखे हस ध्यान!
तोल मुंहू देखब मं असगुन, अंखफुटटा अस फट लू देस
पर के उन्नति ले तंय जलथस, तंय खुद पाथस कलकल क्लेश।”
कातिक हा ओतिर ले खसकिस, धनवा के सुन गुहरा गोठ
क्रोध के कारण बोल सकिस नइ, चुप रहिगे बस चाबत ओंठ।
बइला खाथय मार पेट भर, तभो रहत मालिक के पास
कातिक हा धनवा के घर गिस, हारत हे जीवन के होड़।
धनसहाय हा घर मं अमरिस, देखत हे नौकर के काम
पर के कुरिया अरन बरन पर, खुद के घर हा चकचक साफ।
धनसहाय के पुत्र एक झन, ओकर नाम हवय मनबोध
ओहर टुड़ुग टुड़ुग रेंगिस तंह, धनवा फट ले मारिस रोक।
पुचकट ला पुचकार के बोलिस-”तंय झन कर मिहनत के काम
मंय अनसम्हार धन सकले हंव, ताकि पास तंय सुख आराम।
सोन के मचली मं सोय रहिबे, दुनों हाथ मं करबे खर्च
अंटा जहय तरिया के जल तक, पर धन मोर उरक नइ पाय।”
कपट गोठ मनबोध का समझय, कातिक तिर बालक हा जात
ओला धनवा अधर उठालिस, मुंह ला चूमत प्रेम जतात।
कातिक तन इंगित कर कहिथय-”तंय नइ जानस एला।
दिखब मं सुधुवा लेकिन रखथय मन मं कपट के भेला।
धनवा हा बालक ला लेगिस, कातिक हगरू तिर गोठियात-
“देखव बड़हर मन के आदत, हम गरीब ऊपर अंटियात।
हे मनबोध अभी नानुक अस, तेला देत कुजानिक पाठ
प्रेम ज्ञान के राह देखातिस, पर पीटे बर देवत सांट।
सांपनाथ के नांगनाथ हा, बालक ला बतात हे चाल
पर ओ बखत मरत ले रोहय, जब भावी मं आहय काल।”
हगरू किहिस-”रहन ते भइया, धनवा ला नइ परय दलेल
ओकर तिर पूंजी के ताकत, ओकर ले रहिबो कर मेल।”
“इही चाल ला चलिन ददा मन, कोलिहा असन हुंकारू दीन
हम्मन उंकरों ले अउ कोतल, तब धनवा पनही झड़कात।
अगर भविष्य बनाय चहत हन, शोषक ले हम टक्कर लेन
तब हकिया के छोड़ के रहिहय, लहू चुसे बर भंइसा जोंख।”
ओतकी मं फगनी हा आइस, नौकर मन के झिकिस लगाम-
“काली हवय परब सुरहुत्ती, लेकिन बचे गंज अक काम।
जलगस परय नइ कोर्रा लउड़ी, तुम्मन कहां हलावत देह
बुता बचे तेला उरका दव, तब छुट्टी मिलिहिय घर जाय।”
नौकर मन मुंह ला चुप रखथंय, अधरतिया तक काम बजैन
उंकर पेट होवत हे सपसप, घर मं अमर के जेवन पैन।
सुरहुत्ती के दिन धनवा हा, बात करत फगनी के साथ-
“लछमी पूजा हे संझाकुन, पूजा बर सब जिनिस सकेल।
लक्ष्मी मानपान ला पाथय, उंहचे छाहित होथय सोज।
जउन नेम ले रहत उराठिल, घुघुवा हा खावत हे खोज”