Last modified on 7 जनवरी 2017, at 14:55

गरीबा / धनहा पांत / पृष्ठ - 13 / नूतन प्रसाद शर्मा

“जानत हस कृषि क्षेत्र मं हावय, समय पाग के बहुत महत्व
अगर किसान पाग ले चूकत, ओकर जमों फसल बर्बाद।”
एक दंतारी दीस सनम तंह गीस गरीबा भर्री।
उहां माल ला जुंड़ा मं फांदिस – अब होवत हे बूता।
धन मन झींकत हवंय दंतारी, आगू बढ़त गरीबा खेद
कोदो फसल मं परत किनारी, ढलगत पेड़ – बचत मन ठाड़।
परत दंतारी तेकर कारण, फसल बाढ़ हा पाहय बाढ़
मानव हा व्यायाम करत तब, ओकर तन बनथय बलवान।
बैठ गरीबा गप नइ मारत, समय हा धन अस देवत मान
धरती के सेवा कंस होवत, ऊपर उठत सनसना धान।
गीस गरीबा खेत एक दिन, जांचे बर बिरता के हाल
धनवा लउठी धरे खड़े तन, नौकर मन हें ओकर साथ।
कातिक हगरु टहलू बउदा – खूब निघरघट उंकर सुभाव
गाय गरु ला खेत मं घुसवा, हरा फसल ला खुद चरवात।
पशु मन फसल ला बिक्कट खावत, राहिद उड़ा – करत बर्बाद
धनसहाय मन देखत तब ले, पशु ला नइ खेदत कर नाद।
ढिलिस गरीबा प्रश्न हलू अस – “चरत तेन मन काकर माल
मोर फसल के रांड़ बेचावत, कार रखंय नइ माल सम्हाल!”
धनवा किहिस किंजार के आंखी- “एमन आय जानवर मोर
चारा एको जगह मिलिस नइ, यद्यपि जांच लेंव हर ओर।
आखिर तोर खेत आए हंव, इहां हवय चारा के ढेर
धान के पाना कोमल गुरतुर, पशु मन खावत चाव के साथ।”
कथय गरीबा निहूपदी बन – “फसल ला राखत हंव दिन रात
मोर भविष्य हवय एकर पर, बिना अन्न के जग अंधियार।
अगर पुत्र पर कष्ट हा आवत, ददा घलो दंदरत हे खूब
अगर फसल हा राख होत तब, देख पाय नइ कभुच किसान।
अपन जानवर ला बाहिर कर, काबर के मंय घलो किसान
मोर फसल के राहिद हा उड़त, कइसे देखंव बन के मूक!”
धनसहाय हा व्यंग्य मं किहिस -“श्रद्धा रखथस पशु पर खूब
परब हलेरी अउ देवारी, पूजा करत नवा के माथ।
स्वयं खवाथस लोंदी खिचरी, आज खान दे धान के पान
महादान के पुण्य अमरबे, ऊपर ले सब तन यशगान।”
“तोर व्यंग्य ला मंय समझत हंव, व्यंग्य काय तेला अब जान –
अगर प्रश्न के उत्तर चाहिये, व्यंग्य थथमरा के असमर्थ।
लक्ष्य के दिल ला आहत करथय, घाव तक बनाथय बड़े जान
मगर घाव ला माड़ जाय कहि, ओकर तिर नइ दवई प्रबंध।
जउन अन्न ला मंनसे खातिन, ओला करत हवस बर्बाद
एहर आय भ्रूण हत्या सुन, तंय हा करत बड़े अपराध।”
बोल गरीबा खेत मं घुसरिस, धन खेदे बर करत उपाय
ओतका मं नौकर चाकर संग, सम्मुख कूद गिस धनसाय।
कहिथय – “अरे गरीबा तंय रुक, गरुवा मन ला झनिच निकाल
अगर बिफड़ ओरझटी ला करबे, निछिहंव तोर देह के खाल।
सोनसाय के पुत्र के संग तंय, कहां सकत हस बजनी बाज!
मन मं मोर जउन सब करिहंव, सुन्तापुर मं हमर हे राज।
उत्ती ला बुड़ती कहवाथन, करु लीम ला स्वादिल आम
हमर बीच झन पर भेंगराजी, वरना मुरई अस परिणाम।”
“मोर खेत अंदर जबरन घुस, आंख देखावत बन हुसनाक
धन ला कांजीहौस लेगिहंव, चल अब बता कतिक हे धाक!
भड़क गरीबा हा उम्मस बन, आगू डहर बढ़ा दिस गोड़
धनसहाय हा उबा के लउठी, बीच पिठवरा उपर जमैंस।
जिव करलाय गरीबा झटकिस, लउठी ला ताकत कर जोर
जहां मइन्ता भोगागीस तंह, धनवा ला कंस दीस पधोर।
“अरे ददा, चोला नइ बांचय, नौकर मन झपकुन तिर आव
अब परिणा कुछुच निकलय पर, गिरा देव गरीबा के लाश।”
धनवाहा नौकर मन ला अब कर दिस आज्ञा जारी।
उम्हियावत कुचरे बर जड़से – कुकुर लुहात शिकारी।
नौकर मन भिड़गिन कुचरे बर, मान अपन मालिक – आदेश
लउठी भंजा कचारत रचरच, पर छेंकात ऊपर सब टेस।
अखरा जानत हवय गरीबा, लउठी थाम ऊपर रख देत
पा अवसान खवा के झुझका, उहू दुहत्था झड़किच देत।
एक डहर बस एक आदमी, दूसर डहर अधिक इंसान
कहां गरीबा हा लड़ सकिहय, आखिर खैस बिकट के मार।
कथय गरीबा हा धनवा ला – “अगर भूल से होवत दोष
तब अपराध हा क्षमा होवत, मनसे पर नइ होवय वार।
मगर जान के गल्ती करथय, रच षड़यंत्र करत नुकसान
तब ओहर के दण्ड के भागी, बढ़त कई गुना ओकर दोष।
बना योजना गलत करे हस, फल ला चीख उही अनुसार
अपन शक्ति भर सम्हल जा तंय हा, मंय हा करत भयंकर वार।”
मरत आदमी काय करय नइ, चभक जमा दिस लउठी एक
धनवा के मुड़ परिस भयंकर, रकत फोहारा देइस फेंक।
हाथ मं टमड़ धनवा देखिस, भगे लगिस घर ओकर गोड
तोलगी धर नौकर मन लहुटत, मालिक संग मं झगरा छोड़।
खाय गरीबा हा कंस झड़कइ, निकलत मुंह ले करुण कराह
ओहर अब पशु मन ला खेदत, सब गरुवा ला दीस निकाल।
दंउचे हवय गरीबा कुब्बल, दरद कुटकुटी चंगचिंग देह
रेचेक रेचेक कर वापिस होवत, मगर चलई तक मुश्किल काम।
धनवा के धन “हीरा” उहिकर, धरिस गरीबा ओकर पीठ
ओकर साध चलत हे धीरे, आखिर गांव गली मं अैस।
कुलुप अंधेरा आंख मं छाइस, गिरिस भूमि मं दन्न बेहोश
दुखियाबती आत उहि बल ले, दृष्य देख के समझिस बात।