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गरीबा / धनहा पांत / पृष्ठ - 6 / नूतन प्रसाद शर्मा

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व्यर्थ बिलमना सोच गरीबा, मीनमेख तज गीस मकान
सुद्धू हा कुब्बल घबरा गिस, अपन टुरा ला केंघरत जान।
सुद्धू चेंध के कारण पूछिस, देत गरीबा सही जुवाप
झार अधिक झन बढ़ जाये कहि, बाप हा सारत दवई ला जोंग।
थोरिक वक्त कटिस तंह सुद्धू, करत पुत्र ले हलू सवाल-
“झार कहां हे- लगत कतिक पन, अपन देह के फुरिया हाल?”
कथय गरीबा- “झार हा उतरत, कल तक तबियत बिल्कुल ठीक
मगर रहस्य उमंझ नइ आवत, कते दिवस मानवता नीक!
पशु मन एक दुसर ला चांटत, रखथंय सहानुभूति के भाव
चिड़िया मन मं मित्रता रहिथय, चारा खावत आपस बांट।
पर हम मानव बुद्धिमान अन, भाषण देत सुहावन लाम
एकता मैत्री अउ सदभावना, भाषा मीठबंटत उपदेश।
मगर मया हा टूटे रहिथय- मित्र ला देवत घाटा।
ऊँच नीच हा काबर होथय उत्तर लान तड़ाका।
“मोर पास नइ ज्ञान बिस्कुटक, पढ़ नइ पाय ग्रंथ साहित्य
तंय शिक्षित- आधुनिक जानबा, तिंहिच बता-का कारण भेद!”
सुद्धू प्रश्न खपल दिस उल्टा, कहत गरीबा हा कुछ घोख-
“तोला जग के अड़बड़ अनुभव, पर तंय फांसत हस मुड़ मोर।
भेदभाव ले दुरिहा रहिथस, तब तंय मोला उठा के लाय
यदि अंतस मं कपट एक कन, पर के बिन्द ला लातेस कार!
तंय हा प्रश्न के उत्तर जानत, मगर धरेस तंय एक विचार-
बढ़य गरीबा के तर्क क्षमता, तब मंय बोलत मति अनुसार-
एक असन धन के वितरण नइ, छल प्रपंच मानव के बीच
शोषक के पथ बस लूटे बर, शोषक हा चुसात खुद खून।
प्रेम एकता अउ समानता, मानव के जतका गुण श्रेष्ठ
झगरा के चिखला मं फँस गिन, उहां ले उबरई मुश्किल जात।
मनसे देखत अपन स्वार्थ ला, दूसर ला फँसात कर यत्न
तब मानवता राख होत हे, टूटत हवय प्रेम के तार।”
तभे लतेल इंकर तिर पहुंचिस, खोल के बोलत खुद के हाल-
“तीन कांड़ के मोला कमती, तब वन गेंव करे बर पूर्ति।
मोर साथ अउ मनखे तेमन, सोनसाय मण्डल के भृत्य
हम्मन छांटेन पेड़ सोज तंह, बोंग गिराय करेन प्रारंभ।
कट के पेड़ गिरिन भर्रस ले, छांट देन जकना अउ डार
हरु करे बर छंड़ा छालटी, बाद खांद पर रखेन उवाट।
तंहने हम सब वापिस होवत, लुंहगी चल फुरसुदही मार
हंफरत-खांद पिरावत कतको, तभो रुकत नइ हिम्मत हार।
हम्मन मुंह ला चुप कर रेंगत यद्यपि आवत खांसी।
उदुप सामने दड़ंग पहुंच गिस जंगल के चपरासी।
वनरक्षक ललिया के कहिथय- “कइसे जात हलू अस रेंग
खड़े झाड़ बिन पुछे गिराये, वन लगाय का बाप तुम्हार?
पटकव इहिच मेर सब लकड़ी, तुरुत लिखाव नाम ठंव गांव
यदि आदेश उदेल के भगिहव, एकर बहुत गलत अन्जाम।”
अतका कहि लतेल चुप होवत, सोचत हे घटना के दृश्य
एकर बाद जउन हा बीतिस, कहत उंकर तिर वाजिब बात-
“हम्मन डर मं लकड़ी ला रख, रक्षक पास सुकुड़दुम ठाड़
ओकर शरण गिरेन नीहू बन, पर ओहर हा देत लताड़।
सोनू के नौकर मन बोलिन- “हमला मालिक इहां पठोय
थोरिक मोहलत देव कृपा कर, ठाकुर ला हम लानत शीघ्र।”
रेंगिस परस धरापसरा अउ, खड़ा करिस सोनू ला लान
सोनसाय हा वनरक्षक ला, अलग लेग के लालच देत।
खुसुर पुसुर का करिन दुनों झन, का समझौता सब अज्ञात
हम दुरिहा तब समझ पाय नइ, पर गड़बड़ अतका सच बात।
सोनू मोरे ऊपर बखलिस- “मोर गुमे एक लगता गाय
ढुंढे बर इहां आय भृत्य मन, तेला तंय फंसात हस व्यर्थ।
तंय चोराय डोंगरी झपाय हस, तेकर स्वयं भोग परिणाम
दूसर ऊपर लांछन झन कर, वरना बहुत गलत अंजाम।
सोनू के हुंकी भरिन भृत्य मन, सब जंजाल ले फट बोचकीन
जम्मों दोष मोर मुड़ खपलिन, धथुवा बैठ गेंव धर गाल।
ओमन थोरको सोग मरिन नइ, हार करेंव एक ठक काम-
अपन चीज बस ला बिक्री कर, फट भर देंव दण्ड के दाम।
बिपत कथा ला कतिक लमावंव, गांव मं जब पंचायत होत
सोनसाय के पक्ष लेत मंय, ओला सदा मिलत फल मीठ।
मगर मोर पर कष्ट झपाइस, ओहर मदद ले भागिस दूर
ओकर फाँदा मोर गटई मं, हाय हाय मं मुश्किल प्राण।”
अपन बेवस्ता ला लतेल कहि, होत कलेचुप मुंह ला रोक
कथा ला सरवन करिस गरीबा, जानिस के लतेल फँस गीस।
कथय- “धनी के इही चरित्तर, दया मया नइ उनकर पास
अपन पाप ला पर मुड़ रखथंय, पापी तभो होय नइ नाश।”
इसने किसम बतावत बोलत, संझा होगिस बुड़गे बेर
चलिस लतेल अपन कुरिया बल, मन के व्यथा इंकर तिर हेर।
बइठन पैन बियारी ला कर, कोटवार हा पारिस हांक-
“सुन्तापुर के भाई बहिनी, मोर गोहार ला सरवन लेव।
हे कल ज्वार तिहार हरेली, गांव गंवई के पबरित पर्व
अपन खेत मं काम बंद रख, नांगर फंदई ला राखव छेंक।
भूल के झन टोरो दतून ला, काट लाव झन कांदी घास
परब हरेली ला सब मानो, ओला देव हृदय ले मान।”
सुद्धू कान टेंड़ के ओरखत, राखत हे रक्षित हर बोल
सुनत गरीबा घलो लगा मन, परब हरेली ला संहरात।
सुद्धू हा हरिया के बोलिस- “वास्तव मं ए पर्व हा श्रेष्ठ
जमों क्षेत्र मं हे हरियाली, हरा होत मन हरियर देख।”