Last modified on 9 नवम्बर 2014, at 13:44

गर उसकी ज़ुल्फ़ परीशां नहीं तो कुछ भी नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'

गर उसकी ज़ुल्फ़ परीशां नहीं तो कुछ भी नहीं I
हमारी मौत का सामां नहीं तो कुछ भी नहीं II

सतूने-दार पे काफ़ी नहीं सरों के चराग़,
ब-आबो-ताब चराग़ां नहीं तो कुछ भी नहीं I

ये ज़िन्दगी की अलामत है इसकी फ़िक्र न कर,
तेरा ज़मीर परेशां नहीं तो कुछ भी नहीं I

अदाए-ख़ास है उसकी तू जी न कर छोटा,
वो बादे-मर्ग गुलअफ़्शां नहीं तो कुछ भी नहीं I

सुख़नवरी का वो दावा ज़रा नहीं करता,
अगर्चे सोज़ ग़ज़लख़्वां नहीं तो कुछ भी नहीं II