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गलत कहेंगे तो मान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था / महेंद्र अग्रवाल

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गलत कहेंगे तो मान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था
मगर यहीं पर बयान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

जवान जिस्मों की भूख जैसी, उम्मीद बेजा खड़ी रहे पर
वो अपनी आंखों में तान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

उसी के तीरों से जिस्म घायल, लड़ाई लड़ने हमारे बाजू
उसी से टूटी कमान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

उदास गै़रत के तंग हाथों, में सिर्फ़ अस्मत, निराश नजरें
ये जिस्म कोई दुकान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

जरूरतें थी कभी फसल की, मुसीबतों में ये कीटनाशक
कभी यहां खुद किसान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

गुलामियों ने सिखा दिया है, नजर मिले तो सलाम करना
नहीं तो हाकिम जुबान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

यकीं नहीं था न कल्पना थी, जिबह हुए जो क़तील फिर भी
बिना ज़हन के उड़ान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

शिकार कर या शिकार हो जा, ये फैसला हो ज़मीन पर ही
ये ज़िद गलत है मचान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

सवाल सबको बता मुझे ही, जलील करना जो चाहते हैं
वही यहां इम्तिहान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था

ग़ज़ल ज़ुबानों की मज़हबों की, या मुल्क़ की भी नहीं बपौती
कहें वो फिर भी तो मान लेंगे, तुम्हीं कहो कुछ, ये तय नहीं था