भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गले का हार वंदे मातरम / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:44, 30 मई 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंग्रेजी हुकूमत की यह सरकार हमारे बन्देमातरम को
कभी भी नहीं छीन सकती है।
यह बन्देमातरम तो हम गरीबों के गले का हार है।
हम तो वही कर रहे हैं जो इस वक्त पर हमें करना चाहिए।
आज सारा संसार बन्देमातरम का उद्घोष कर रहा है।
 दुर्जनों (अंग्रेजी हुकूमत )का मन उस समय जल कर भस्म हो जाता है
 जब उनके कान में बन्देमातरम की झंकार पड़ जाती है।
 देशभक्तो !तुम जेल में चक्की पीसते और भूख से मरते समय
 पर भी इसी बन्देमातरम को प्यार करना।
मौत के मुहाने पर खडे़ देशभक्त कह रहे हैं
बन्देमातरम की तलवार इनकी छाती में घोंप देंगे।
देशभक्तों की नाड़ी देखकर वैद्य भी अब सिर हिलाकर कहने लगे हैं कि
इन्हें बन्देमातरम की बीमारी जकड़ चुकी है।
इन देशभक्तों के लिये तो यह बन्देमातरम,
 होली ,दिवाली व ईद के त्यौहार से भी
सौ गुना ज्यादा प्यारा हो गया है।