भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गले मिला न कभी चाँद बख्त ऐसा था / शकेब जलाली

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:46, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था

सितारे सिसकियाँ भरते थे ओस रोती थी
फ़साना-ए-जिगर लख़्त-लख़्त ऐसा था

ज़रा न मोम हुआ प्यार की हरारत से
चटख के टूट गया, दिल का सख़्त ऐसा था

ये और बात कि वो लब थे फूल-से नाज़ुक
कोई न सह सके, लहजा करख़्त ऐसा था

कहाँ की सैर न की तौसन-ए-तख़य्युल पर
हमें तो ये भी सुलेमान* के तख़्त ऐसा था

इधर से गुज़रा था मुल्क-ए-सुख़न का शहज़ादा
कोई न जान सका साज़-ओ-रख़्त ऐसा था