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गहराई में जाने की कला सीख रही है / कांतिमोहन 'सोज़'

क्रान्ति की चौथी बरसी 20-12 14 पर एक ग़ज़ल उसके नाम

गहराई में जाने की कला सीख रही है ।
वो साँवली सूरत जो मेरे मन में बसी है ।।

ये किसने बताया कि मैं ख़ुश हो नहीं सकता,
हाथ आय वही शाम जो कल बीत चुकी है ।

हर चीज़ जो कल लाल थी वो आज है पीली,
क्या आँख के परदे पे मेरे धूल जमी है ।

उम्मीद मेरा साथ निभाएगी कहाँ तक,
उम्मीद की एड़ी में कोई फाँस घुसी है ।

एक खेल है जारी मैं मज़ा लूट रहा हूँ
पसरा है यहाँ दर्द ख़ुशी भाग रही है ।।