Last modified on 7 फ़रवरी 2018, at 18:36

गहरी झील / ज्योत्स्ना शर्मा

71
काली हो रात
खिल उठती बाती
दीए के साथ।
72
जीने की चाह
ढूँढ लेती तम में
अपनी राह।
73
सहके पीड़ा
खिलें फुलझड़ियाँ
हँसे मुनिया!
74
गहरी झील
सुधियों के हंस भी
तिरते रहें!
75
जागी चिरैया
अरुणिमा बजाए
भोर की वीणा!
76
स्वप्न सलोने
बन राग बजते
सुर सजते।
77
नींव मुस्काई
उसने जो घर की
देखी ऊँचाई.
78
सजाये सदा
हिल-मिल सपने
प्यारा वह घर।
79
गाँव, शहर
टुकड़ों में बँटता
रोया है घर।
80
नेह की डोर
खींच लिये जाए है
छूटे न घर।