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ग़मे-आशिक़ी से कह दो / शकील बँदायूनी

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ग़मे-आशिक़ी से कह दो रहे–आम तक न पहुँचे,
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे।

मैं नज़र से पी रहा था कि ये दिल ने बददुआ दी
तेरा हाथ ज़िंदगी-भर कभी जाम तक न पहुँचे।

नयी सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे।

ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारिक,
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे।

जो निक़ाबे-रुख उठी दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे।