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ग़रीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है / संजय मिश्रा 'शौक'

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गरीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है
वो बिरहा में झुलसते जिस्म पर चन्दन लगाती है
 
महकती है बदन में उसके हिन्दुस्तान की खुशबू
कि वो तालाब की मिट्टी से जब उबटन लगाती है

 जवानी देखती है खुद को रुसवाई के दर्पण में
 फिर अपने आप पर दुनिया के सब बंधन लगाती है

कुंवारी चूड़ियों की दूर तक आवाज आती है
वो जब चौका लगती है, वो जब बासन लगाती है

उदासी में तेरी यादों की चादर ओढ़कर अक्सर
मेरी तन्हाई अपनी आँख में आंजन लगाती है

कभी तो आईना देखे तेरे दिल में भरी नफरत
हमेशा दूसरों के वास्ते दरपन लगाती है