भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़रीबी जाति की / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:32, 23 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यों साहस को सियासत1 मार देती है
ग़रीबी जाति की कपड़े उतार लेती है
अकसर लोग रहते हैं भूखा व नंगा
जब इंसानियत को जाति बांट देती है

कितनी सभाओं में बेइज्जती सहता हूँ
बेबसी चेहरे की रौनक बिगाड़ देती है
बुलंद सीना मेरा खाई जैसे धंसता है
जातिय कुर्सी जब, कुर्सी से गिरा देती है

हमारे मुंह से निवाले, उस वक्त गिर जाते हैं
जब मेरे जीने की, रोटी नीलाम होती है
हमें नीच बनके, हर वक्त रहना पड़ता है
क्योंकि लाठियां सवर्णों की, पगड़ी उतार लेती हैं

हालात बदलने से, पानी का रंग बदला गया
पर जातिय गंदगी हमें, नाले में डाल देती है
‘बाग़ी’ ज़हर पीता तो, एक बार मरता
मगर नीचता की पीड़ा, हर रोज मार देती है