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ग़रीब मंच की औरतें / अनुज लुगुन

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ये ग़रीब मंच की औरतें हैं
ये बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ
हवा में लहराकर
हँसुए से लिख सकती हैं
ईमान की बात
एक साथी कहता है
ये कैथर कला की औरतें हैं
(इनकी बाजुओं से ही दुनिया की सूरत बदलेगी )

ये अभी-अभी जुलूस से लौटी हैं
इन्होंने डी०एम० का घेराव किया है
भू-माफ़ियाओं की साज़िशों के ख़िलाफ़
ये अब बैठी हैं विचार-गोष्ठी में
और पूरे ध्यान से सुन रही हैं वक्ताओं को
कविताओं को गुन रही हैं अपने अर्थ के साथ
इनमें से अधिकाँश पढ़ना भी नहीं जानती
लेकिन वे जानती हैं लड़ने के दाँव-पेंच

वे विचारों को माँज रही हैं
एक युवा उनसे सीखने की बात करता है
उनके जीवन अनुभवों को वास्तविक ग्रन्थ कहता है
उसकी बातों से उनकेरोम-रोम में
दौड़ती है बिजली की लहर
और उनकी सिकुड़ती चमड़ी में
चमक पैदा होती है समर्थन के शब्द सुनकर

ग़रीब मंच की औरतों में
ग़रीबी का रुदन नहीं है
कहीं नहीं है भिक्षा का भाव
उल्लास है उनकी भंगिमाओं में
वे हँसती हैं, बोलती हैं, पूछती हैं
उनकी सोच में नहीं है
बिकने का भाव और सुविधाओं की सेंध
वे पूरी ताक़त के साथ
सलाम की मुद्रा में अपनी मुट्ठियाँ उठा देती हैं ।