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ग़ैरों से बारम्बार न जा कर मिला करे / शंकरलाल द्विवेदी

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ग़ैरों से बारम्बार न जा कर मिला करे

हम से कोई अपना जीवन भर मिले नहीं-
ग़ैरों से बारम्बार न जा कर मिला करे।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
(1)
वैसे कोई छल ले, कोई ग़म मुझे नहीं,
अपना कह कर, न पराया बन कर छला करे।
हमको झूठा विश्वास न आ कर दिया करे,
ग़ैरों से बारम्बार न जा कर मिला करे।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
(2)
प्यासे अधरों पर गीत गुनगुना लेती हूँ,
नयनों की गागर, छल-छल छलका करती है।
सारी पीड़ा में डुबो, कोई तन को बीमार भले कर दे-
लेकिन इस निश्छल मेरे मन को बीमार न किया करे।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
(3)
हर पंथ, नयन के साथ, न संगी मिला कहीं-
मंदिर-मस्जिद-गिरजे-गलियों-गलियारों में।
जो नज़र उठी, बैठा बहार के सायों में-
रूप के हाथ से जाम चढ़ाता हुआ मिला।
हम से कोई अमृत भी चाहे पिये नहीं-
बदनाम बहारों के हाथों, छिपकर यह ज़हर न पिया करे।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
(4)
अनगिन रूपों से चिन-चिन कर, दीवार खड़ी कर दी उसने,
अपना था, छिपकर भी बोलो, मुझसे कैसे छिप सकता था।
कच्चे शीशे-सी दीवारों के, पीछे जो भी खेल हुए,
वे भले नहीं जीवित, बदनाम कहानी है।
इस भाँति भुला मेरी सुधियाँ, मुझको बदनाम भले कर दे-
कोई कह दे उस से जा कर, ख़ुद को बदनाम न किया करे।
ग़ैरों को बारम्बार प्रणाम न किया करे।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
(5)
मेरे आँसू के बोल बड़े दर्दीले हैं,
लेकिन वाणी के स्वर बेहद शर्मीले हैं।
पथरीला पंथ- प्रतीक्षा का, मनुहारों का,
फिर भी आशा के फूल बिछा कर चलती हूँ।
मुझसे चाहे जीवन भर तपन मिले; लेकिन-
यह आकुल आश-निराश न कोई किया करे।।
ग़ैरों को बारम्बार पुकार न दिया करे।।
-१४ जनवरी, १९६४