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गाँवों में स्त्रियाँ / राजेन्द्र देथा

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जूने गाँव अभी भी थे हिंद में
नहीं जानतीं जूने गाँवों की औरतें
खेत, गुवाड़, गवारणी और जनन की प्रक्रिया
या कुछ और चीज़ों के अतिरिक्त किसी चीज़ को।
खेत में दिन भर सूड़ करने के बाद
पुरुषों को सहवास एक ज़रूरी प्रक्रम जान पड़ता था
और गाँव में आई नर्स द्वारा प्रदत्त
गर्भनिरोधकों को उनके बच्चों ने
गुब्बारे बना उड़ा दिया था,
वे मासिक धर्म नहीं जानती थीं
उन्होंने इसका नाम अपनी देसभासा में कुछ अलग कर रखा था
और इन ग़लतियों और सुख के कारण
पुरुष ग़लती के मुताबिक़ कब कर गए
बच्चों की टोली
यह उन्हें ध्यान नहीं रहा।
जब भी कोई पढी-लिखी बहनजी आती
इधर शहर से गाँव की ओर एनजीओ के मार्फ़त
वे घेर लेती थीं और पूछती उनसे नसबंदी के बारे में
वे नहीं जानतीं तुम्हारे विमर्श को और न ही तुम्हारे घर को।
और इधर यह सब ध्यान में न रखकर
महानगरों में जब हमारे गाँव की
औरतों पर लिखी जा रही थीं
कविताएँ, कहानियाँ और लघुकथाएँ
ठीक उसी वक़्त ये तीनों विधाएँ
अबोली बैठी दुखी हो रो रही थीं
शब्दों को पकड़कर ठूँसा जा रहा था
मात्राएँ विलाप कर रही थीं
अनुस्वार माथा पकड़ बैठे थे
उधर कविता लिखने के ठीक बाद
कवि और कवयित्रियों ने खोल दिए थे सीट बेल्ट अपनी कारों के
मौसम के मुताबिक़ और पहुँचना था उन्हें
किसी रात्रि भोज में अपने वरिष्ठों के बताए पते पर
इधर सहसा सुगनी को बताया गया कुछ यूँ
कि तुमपे लिखी जा रही तुम्हारे लिए कविता
दिल्ली में सुगनी ओढ़नी का पल्ला उठाए
करती रहती है सूड़ बैरानी ज़मीं का
उसे लिखी गई ये तमाम विद्रोही कविताएँ
बड़ी संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत
आलोचकों द्वारा सराही गई तमाम कहानियाँ
न जानें क्यूँ अच्छी नहीं लगतीं?
मैं कविता सीख गया था
इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों, कार्यक्रमों, सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही था
कि सीखना है अपने को कोई ढंग
कि कविता करनी है और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्ज़ी से
यह नुस्ख़ा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्ख़ा मुझे मेरे अभिन्न साथी ने दिया था जो
कि स्वयं अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता बड़े लोगों से परिचित रूप से संबंध बनाता,
बातें करता, उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
स्वाभाविक ही उनकी ख़ुशी देखने लायक़ होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे।
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं ही बनी।
मैं थका-हारा यह शहर छोड़कर जा चुका था
अपने गाँव की सीमा में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गाँव की उस दुकान पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो-रोकर कहने लगा
भले मानुष कविता यहाँ थी
तूने वहाँ क्या ढूँढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!